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पीर ऐसी दे गई …

विजया गुप्ता ' सुवर्ण किंशुक '

अभी तो पलक झपकी भी न थी कि मौत आ गयी
न जाने क्यों ज़िन्दगी उसको इस कदर भा गयी।

पीर ऐसी दे गई कि दिल चीर कर रख दिया
वक्त की बांसुरी दर्द भरी रागिनी गा गई ।

सपने झिलमिला रहे थे मासूम आंखों में
किरच-किरच बिखर गये, नींद ऐसी सुला गई ।

मां ने बेटे खोये , बहनों ने भाई प्यारे
जीवन महज है पानी का बुलबुला,सिखा गई ।

जो थे खेवनहार इस जीवन रूपी नैया के
जब सामना हुआ मौत से,आंख डबडबा गई ।

जो डाक्टर बनने चले थे सेवा के पथ पर
पेट अपना भर भी न सके,मौत उनको खा गई ।

डर, मायूसी भरी नज़र ढूंढ रही अपनो को
आशियाना बना न था, तिनका- तिनका बिखरा गई ।

ये दिल कितना नादान है कि मानता ही नहीं
इस जग में कुछ भी न स्थिर है,यह सीख सिखा गई ।

नातिनें नानी को दे गईं प्यार की झप्पी
अंतिम विदाई उनकी नानी को रुला गई ।

पिया मिलन को चली थी इक गोरी सिंगार कर
साध अधूरी रह गई ,वह राख में समा गई ।

इंसान तो बस कठपुतली है विधि के हाथ की
वश में अपने कुछ नहीं, बात गहरी बता गई ।

आंसुओं की धार न रुक सकेगी इतनी जल्दी
सब्र ही इसका इलाज है,यह पाठ पढ़ा गई ।


विजया गुप्ता ‘ सुवर्ण किंशुक

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