तेरी बातों में जब हम उलझने लगे,
क्या कहें किस कदर हम बिखरने लगे।
बात आई कभी जो लबों तक मेरे।
हम तो शब्दों में खुद ही सिमटने लगे।
तेरी बांहों में जा कर सिमटने लगे,
क्या कहें किस कदर हम मचलने लगे ।
था ये वादा मिलेंगे कभी ख्वाब में,
रोज आँखों में सपने सजाने लगे।
चाँद भी अपनी पूरी जवानी पे था,
ओस दामन धरा का भिंगोने लगे।
आँचलो में समेटे थी खुशियां कई,
रातरानी सी हम तो महकने लगे।
लो खतम फिर हुआ अब पहर रात का,
सिलवटों में कटी जो बिसरने लगे।
कह रही है सिरहाने से चंदा सुनो,
भोर की गागर रश्मि छलकने लगे।
तुम कहो तो “कलिका” खुदा मान ले,
तेरे सदके मे सर को झुकाने लगे।
करुणा कलिका (कवयित्री, गीतकार व ग़ज़लगो, बोकारो स्टील सिटी- झारखंड)